भगवान की भक्ति दीनता पूर्वक करो। समाज में लोगों से सभ्यतापूर्वक मिलो। अपने से बड़ों का आदर और सम्मान करो। लेकिन एक बात सदा ध्यान रखो- स्वयं को कभी छोटा और तुच्छ मत समझो। क्योंकि इस भारत वसुंधरा पर तुम्हारा मनुष्य बनकर आना कोई साधारण घटना नहीं है। यही समझ लो कि उस परब्रह्म परमेश्वर की तरह निराकार से तुम भी नराकार हुए हो। तुममें भी वही सब निहित है जो ब्रह्म में है। सद्गुरु कहते हैं जैसे परमात्मा वैसे ही आत्मा केवल मात्रा का अंतर है। ठीक वैसे ही जैसे सूर्य और दीपक! सूर्य में भी प्रकाश है और दीपक में भी प्रकाश है बस अंतर मात्रा का है। इसलिए तुम अपने को स्वयं को पहचानों और अनुभव करो कि मैं देह नहीं, मैं हूं अजर-अमर आत्मा। कहीं और नहीं मेरे अंदर हैं परमात्मा! हमारी आत्मा की अमरता को लेकर भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं न तो आत्मा जन्म लेती और मृत्यु को प्राप्त होती है। ये किसी भी काल में किसी भी परिस्थिति में अपरिवर्तित रहती है। आत्मा सिर्फ देह बदलती है जैसे हम पुराने वस्त्रों को बदलकर नए वस्त्र धारण करते हैं। हमारी किये अभेद्य आत्मा को कोई विकृत अथवा प्रभावित नहीं कर सकता-
नैनं छिन्दन्ति शास्त्राणि नैनं दहति पावक: ।
नचैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारूत: ॥
अर्थात इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते। इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकती। भगवान श्रीकृष्ण द्वारा दिया गया आत्मा की अमरता का यह प्रमाण हमें इस संसार में अभय बनाता है। यहां हम किसी से डरने नहीं आए हैं या दीनहीन और तुच्छ कहलाने बल्कि अभयता का वरदान प्राप्त कर हम मनुष्य इस अनित्य देह के माध्यम से नित्यस्वरूप परमात्मा को प्राप्त करने आए हैं। शास्त्र प्रमाण हैं कि भगवान की भक्ति के लिए अभयता चाहिए जो कि हमें स्वाभाविक रूप से प्राप्त है। इसलिए क्यों न हम भी उस दीपक की तरह देह की परवाह किये बिना जलें। अर्थात राम और राष्ट्र की भक्ति करें। जिस तरह दीपक पूजन-आरती में स्वयं जलकर अपना और औरों का कृतार्थ करवाता है, इसी तरह हम भी स्वयं को अजरअमर आत्मा मानकर इस अनित्य देह से देव और देश की सेवा करें। इससे स्वयं भी कृतार्थ पाएं और औरों का भी कल्याण करवाएं।